हाइगा’ जापानी पेण्टिंग की एक शैली है,जिसका शाब्दिक अर्थ है-’चित्र-हाइकु’ । हाइगा दो शब्दों के जोड़ से बना है …(‘‘हाइ” = हाइकु + “गा” = रंगचित्र चित्रकला) हाइगा की शुरुआत १७ वीं शताब्दी में जापान में हुई | उस जमाने में हाइगा रंग - ब्रुश से बनाया जाता था | लेकिन आज डिजिटल फोटोग्राफी जैसी आधुनिक विधा से हाइगा लिखा जाता है- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’-डॉ हरदीप कौर सन्धु, हिन्दी हाइकु से साभार
यदि आप अपने हाइकुओं को हाइगा के रूप में देखना चाहते हैं तो हाइकु ससम्मान आमंत्रित हैं|
रचनाएँ hrita.sm@gmail.comपर भेजें - ऋता शेखर ‘मधु’
Saturday 28 September 2013
Tuesday 24 September 2013
कुण्डलिया संग्रह 'काव्यगंधा' का लोकार्पण
साहित्य के क्षेत्र में श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं...छंद हो या हाइकु...उनकी रचनाएँ सारगर्भित होती हैं...और पाठकों को आकर्षित करने में सफल रहती हैं...हिन्दी हाइगा पर भी माननीय ठकुरेला जी के हाइगा प्रकाशित हैं| अभी हाल में ही उनके कुण्डलिया संग्रह 'काव्यगंधा' का लोकार्पण हुआ...इसके लिए हिन्दी हाइगा परिवार की ओर से उन्हें अनेकानेक बधाई एवं शुभकामनाएँ !!! प्रस्तुत है लोकार्पण समारोह की रिपोर्ट...
त्रिलोक सिंह ठकुरेला का कुण्डलिया संग्रह ' काव्यगंधा ' लोकार्पित
सिरोही ( 20 -09- 2013 ) राजस्थान साहित्य अकादमी एवं अजीत फाउंडेशन के संयुक्त तत्वावधान में सर्वधाम मंदिर के सभागार में आयोजित कार्यक्रम में
साहित्यकार त्रिलोक सिंह ठकुरेला के कुण्डलिया संग्रह ' काव्यगंधा ' का लोकार्पण किया गया .कार्यक्रम का शुभारंभ दीप-प्रज्वलन और सरस्वती वन्दना के साथ हुआ .इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि और वरिष्ठ आलोचक डॉ.रमाकांत शर्मा , अजीत फाउंडेशन के सचिव श्री आशुतोष पटनी ,
एस.पी. कालेज के प्राचार्य डॉ. वी.के. त्रिवेदी एवं साहित्यकार श्रीमती शकुन्तला गौड़ 'शकुन ' सहित अनेक गणमान्य व्यक्ति एवं साहित्यप्रेमी उपस्थित थे.
राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष श्री वेद व्यास ने इस अवसर पर शुभ-कामनाएं व्यक्त करते हुए कहा कि ' इस कंप्यूटर के युग में भी पुस्तकें महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि कंप्यूटर और इंटरनेट की सुविधा बहुत कम लोगों के पास है.इसी कारण साहित्यकार और पुस्तकें आज भी प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हैं.
राजकीय महाविद्यालय , सिरोही की हिन्दी प्रवक्ता सुश्री शची सिंह ने कहा कि 'आज कविता से छंद लुप्त होता जा रहा है और कविता गद्य का रूप लेती जा रही है. ऐसे समय में ' काव्यगंधा ' का प्रकाशित होना सुखद तो है ही , यह साहित्य की छांदस परम्परा को आगे बढाने का एक प्रशंसनीय प्रयास है.मुझे पूर्ण विश्वास है कि त्रिलोक सिंह ठकुरेला का यह संग्रह कुण्डलिया छंद को नए शिखर और नए आयामों की ओर ले जाएगा. जीवन में यदि भाव न हों तो जीवन नीरस हो जाएगा . काव्यगंधा की कविता भावों की कविता है.
शुश्री शची सिंह ने ' काव्यगंधा ' से कुण्डलिया छंदों का वाचन भी किया .
इस अवसर पर श्रीमती शकुन्तला गौड़ 'शकुन ' के कविता संग्रह ' हम तो वृक्ष हैं ' का लोकार्पण भी किया गया.
'डॉ.सोहनलाल पटनी स्मृति व्याख्यान ' के अंतर्गत ' साहित्य ,समाज और हमारा समय ' विषय पर बोलते हुए श्री वेद व्यास ने डॉ.सोहनलाल पटनी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि डॉ.सोहनलाल पटनी का व्यक्तित्व सभी को प्रभावित करता था. उनका कृतित्व एवं शोध कार्य समय की कसौटी पर महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं . उन्होंने कहा कि
साहित्यकार , चित्रकार और शिल्पकार ही देश का भविष्य और इतिहास बनाते हैं .साहित्यकार संवेदनशील होता है और उसे दूसरे का दुःख प्रभावित करता है .जो धारा के विरुद्ध चलता है, वही इतिहास बनाता है और साहित्यकार को भी कई बार समय की धारा के विरुद्ध चलना पड़ता है . उन्होंने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा कि युवा साहित्य से जुड़ें और विविध विधाओं में रचनाओं का सर्जन करें
अंत में श्री आशुतोष पटनी ने सभी का आभार प्रकट करते हुए धन्यवाद ज्ञापित किया
Wednesday 18 September 2013
हिंदी हाइगा - हाइगा के विकास में मील का पत्थर
आ० दिलबाग विर्क जी ने हिन्दी हाइगा पुस्तक की समीक्षा भेजी है...तहे दिल से आभार !! इसके पहले आ० कैलाश शर्मा सर एवं आ० शैलेष गुप्त वीर जी की समीक्षाएँ भी प्राप्त हो चुकी हैं|
वैसे जापानी विधाओं को लेकर भारतीय साहित्यकार विरोधी रुख अपनाए हुए हैं । यह सचमुच हैरानीजनक है । हम जिस पैन से लिख रहे हैं वह विदेशी हो सकता है, हम जिस मोबाईल या लैपटॉप से ब्लॉग का संचालन करते हैं वह विदेशी हो सकता है लेकिन विधा विदेशी नहीं होनी चाहिए । इन विदेशी विधाओं में समस्याएं, भाव देशी हैं यह वो सोचने को तैयार ही नहीं । फिर इनको अपनाकर हम कुछ भी विदेश को नहीं देते जबकि विदेशी वस्तुओं द्वारा धन विदेशों को भेज रहे हैं जबकि इन विधाओं को अपनाकर हम देशी साहित्य को ही समृद्ध किया जा रहा है ।
यह विरोध मुक्त छंद और ग़ज़ल को भी सहना पड़ा था । निराला जी इनके लिए साहित्यकारों के कोपभाजन बने थे लेकिन यह विधाएं आज बहु प्रचलित हैं । जापानी विधाएं भी बहुप्रचलित होंगी लेकिन निराला जैसे प्रचंड व्यक्तित्व की जरूरत है । बहुत से साहित्यकार इस दिशा में प्रयासरत हैं, मधु जी का नाम भी उन्हीं के साथ जरूर लिया जाएगा, ऐसा संदेश यह पुस्तक दे रही है ।
प्रस्तुत पुस्तक में जो हाइगा बनाए गए हैं वह मधु जी के अपने हाइकुओं के साथ-साथ कुछ प्रतिष्ठित हाइकुकारों के हैं तो कुछ नए हाइकुकारों के ( मैं भी इन नए हाइकुकारों में एक हूँ । ) हाइकु के गुण-दोष की चर्चा हाइकु की समीक्षा होगी जबकि प्रस्तुत पुस्तक हाइगा की है , इसलिए हाइगा पर ध्यान केन्द्रित किया जाना जरूरी है । इंटरनेट से चित्र ढूंढो और कम्प्यूटर द्वारा उन पर हाइकु लिख देना मात्र ही हाइगा नहीं । हाइगा द्वारा हाइकु में छुपे हुए गंभीर अर्थ को प्रगट करना होता है, अत: चित्र का चुनाव भावों के अनुसार करना एक कठिन कार्य है । मधु जी ने इस दिशा में जो प्रयास किये हैं वह सचमुच सराहनीय हैं । मधु जी चित्रों और हाइकु के गहन भावों में तादातम्य बैठाने में पूरी तरह सफल हुई हैं ।
नवीन सी चतुर्वेदी जी का भारत के पश्चिमीकरण पर लिखे हाइकु को चित्रों को जोड़कर बनाए हाइगा ने चार चाँद लगा दिए हैं । कवयित्री का खुद का मोबाइल संबंधी हाइगा मुट्ठी में सिमटती दुनिया का अहसास दिलाता है । डॉ. भावना कुंवर के हाइकु को पेड़ के चित्र के साथ जोड़कर गहरे अर्थ दिए गए हैं क्योंकि जैसे यौवन पर सबकी कातिल निगाहें टूट पड़ती हैं वैसे ही फूलते-फलते ही पेड़ पत्थरों का शिकार होने लगता है । डॉ. रमा द्विवेदी जी के हाइकु से बने हाइगा में बैशाख की तपन को सूर्य की तेज किरणों द्वारा चित्रित करके यहाँ प्रकृति का जीवंत रूप आँखों के सामने उतारा है तो वहीं रचना श्रीवास्तव के हाइकु में छोटे पौधे के चित्र से पिता के महत्त्व को दर्शाया गया है । मंजू मिश्रा जिन्दगी के निरंतर चलने की बात हाइकु में करती हैं तो इसके लिए नदी से सटीक चित्र क्या हो सकता है । साथ ही नदी के किनारे बैठी औरत उस भाव को व्यक्त कर रही है जो हाइकु में कहीं गहरे छुपी है । कोई जिन्दगी के साथ चले न चले जिन्दगी चलती रहती है , चित्र भी यही कहता है कोई नदी के किनारे पर बैठा है या साथ चल रहा है यह नदी कब देखती है जिन्दगी की तरह । कैलाश शर्मा के अकेले चलने की पुकार लगाता हाइकु चित्र द्वारा सुंदर रूप से परिभाषित किया गया है क्योंकि जब मंजिल निश्चित हो तो साथी मिल ही जाते हैं । हाइगा में यात्री का उफुक की तरफ बढना ऐसे ही रास्तों की बात करता है जिनकी मंजिल अनिश्चित है और ऐसे रास्तों के राही अक्सर अकेले होते हैं । ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं । पूरी पुस्तक ऐसे सजीव हाइगा से भरी पड़ी है ।
मेरे विचार से वर्तमान भारतीय साहित्य में हाइगा की यह प्रथम पुस्तक है और निश्चित रूप से यह ऐसी ओर पुस्तकों के प्रकाशन हेतु प्रेरणा स्रोत बनकर हाइगा के विकास में मील का पत्थर सिद्ध होगी । इस प्रयास हेतु और कठिन परिश्रम हेतु मधु जी बधाई की पात्र हैं ।
........................दिलबाग विर्क
Monday 9 September 2013
Sunday 1 September 2013
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