त्रिलोक
सिंह ठकुरेला
बंगला
संख्या- 99 ,
रेलवे
चिकित्सालय के सामने,
आबू
रोड -307026 ( राजस्थान )
मोबाइल-
09460714267
समीक्षात्मक आलेख
आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं
माधव नागदा
त्रिलोक सिंह ठकुरेला द्वारा संपादित
लघुकथा संग्रह ‘आधुनिक
हिन्दी लघुकथाएं’ मेरे
सम्मुख है| आजकल
संपादित लघुकथा संग्रहों की बाढ़ सी आ गई है| यह बात लघुकथा के भविष्य के लिए अच्छी
भी है और बुरी भी| लघुकथा
की विकास यात्रा में मील का पत्थर बनने की होड़ में कई लोग बिना किसी संपादकीय
दृष्टि या कि सूझ-बूझ के जैसी भी लघुकथाएं उन्हें उपलब्ध हो जाती हैं उन्हें
इकट्ठाकर पाठकों के सम्मुख पटक देते हैं| शायद इसी बात से दुखी होकर बलराम को कहना पड़ा
है कि अधिकांश लघुकथा संग्रह भूसे के ढेर हैं जिनमें दाना खोज पाना बहुत मुश्किल
काम लगता है| इस
बात का उद्धरण स्वयं ठकुरेला ने ‘अपनी बात’ में दिया है| इसका अर्थ यह हुआ कि ठकुरेला ऐसा
लघुकथा संकलन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहते हैं जिसमें भूसा कम और दाने
अधिक हों| यद्यपि
उन्होंने ‘अपनी
बात’ में
सीधे-सीधे अपने उद्देश्य के बारे में कुछ नहीं कहा है| हम केवल अनुमान लगा सकते हैं| वे कहते हैं, ‘लघुकथा घनीभूत संवेदनाओं को व्यक्त
करने की क्षमता रखती है|’ अर्थात् वे ऐसी क्षमतावान लघुकथाएं संकलित करना
चाहते हैं जिनमें घनीभूत संवेदनाएं हों| परन्तु मुझे लगता है कि उनका वास्तविक उद्देश्य
कुछ और ही है जो कि पुस्तक के शीर्षक से ध्वनित होता है| शीर्षक है, ‘आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं|’ यानि ऐसी लघुकथाओं का संकलन जो आधुनिक हों|
परन्तु उन्होंने
कहीं भी ‘आधुनिक’
की अवधारणा पर
प्रकाश नहीं डाला है| यदि
हम ‘आधुनिक’
की काल सापेक्ष
चर्चा करें तो डॉ.रामकुमार घोटड़ के अनुसार लघुकथा के संदर्भ में सन् 1970 के पश्चात् का समय आधुनिक काल है| इस दृष्टि से सन् 1971 से अब
तक रचित लघुकथाएं आधुनिक लघुकथाएं हैं| परन्तु मेरी दृष्टि में आधुनिकता की यह परिभाषा
मुकम्मल नहीं है| कारण
कि काल विभाजन की दृष्टि से कोई रचना आधुनिक होते हुए भी जरूरी नहीं कि मूल्यबोध
की दृष्टि से भी आधुनिक ही हो| उदाहरण के लिए एक लघुकथा (इस संग्रह से नहीं)
इस प्रकार है: एक स्त्री को प्रसव-पीड़ा से मुक्ति मिलती है| जब दाई बताती है कि लड़की हुई है तो
वहां उपस्थित सभी स्त्रियों के चेहरे प्रसन्नता से खिल उठते हैं| आगे लेखक अपनी तरफ से टीप जड़ता है,
‘कहने की
आवश्यकता नहीं कि वे सब वेश्याएं थीं|’ यानि पुत्री जन्म पर यदि कोई स्त्री खुशी जाहिर
करती है तो लेखक के अनुसार वह वेश्या होगी| जाहिर है कि आधुनिक काल में रची गई
होने के बावजूद प्रतिगामी मूल्य वाली यह लघुकथा आधुनिक तो कतई नहीं है| हां, समकालीन जरूर है| समय सापेक्षता समकालीनता का द्योतक है,
आधुनिकता का
नहीं|
तो फिर सर्जनात्मकता के संदर्भ में आधुनिक
होने का क्या तात्पर्य है? मेरे विचार से भाषा, भाव, कथ्य, संवेदना, शिल्प, विचार, जीवन मूल्य की दृष्टि से जिस रचना में
नयापन हो वही आधुनिक है| आधुनिक वह है जो पुरानी सड़ी-गली, तर्कहीन मान्यताओं के प्रति अपना विरोध
दर्ज करे या फिर उनके परिष्कार की ओर संकेत करे| आधुनिक लघुकथा या कोई भी रचना ताजा हवा
के झोंके की तरह होती है| डॉ.कुन्दन माली के अनुसार, ‘आधुनिकता जीवन और सर्जन के क्षैत्र में
मौजूद यथास्थिति और रूढ़ियों के प्रतिकार का नाम है|’
इस दृष्टि से विचार करें तो ‘आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं’ की कई लघुकथाएं आधुनिकता की कसौटी पर
खरी उतरती हैं|
आज के दौर की कई लघुकथाओं में नगरीय जीवन
की भागदौड़ भरी जिंदगी के कारण बुजुर्गों की दयनीय होती जा रही स्थिति को खूब
चित्रित किया गया है| परन्तु
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथा ‘ऊंचाई’ इन सबसे अलग हटकर है| यहां पिता जिस ऊंचाई पर खड़े हैं उसे
देखकर एक ताजगी का अहसास होता है| यह लघुकथा सिर्फ कथ्य की दृष्टि से ही नहीं वरन
अपनी संवेदनात्मक छुअन के लिए भी उल्लेखनीय है| रामयतन यादव की ‘डर’ में भी कमोबेश यही स्वर उभरकर आया है
परन्तु तनिक भिन्न संदर्भ में| यहां मरणासन्न माधव अंकल का स्वाभिमान मन को
भिगो देता है|
राजेनद्र परदेसी ने आज के शहरी युवा के मन में
ग्रामीण जन-जीवन के प्रति पनप रहे वितृष्णा भाव को बड़ी कुशलता के साथ अपनी लघुकथा
‘दूर
होता गांव’ में
पिरोया है| प्रकान्तर
से यह उपेक्षा श्रमशील संस्कृति के प्रति भी है जिसे लेखक ने सटीक संवादों के साथ
प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया है| डॉ.रामनिवास मानव की लघुकथा ‘दौड़’ भी गांव और नगर के बीच की खाई की ओर
इशारा करती है|
प्रतापसिंह सोढ़ी ‘शहीद की माँ’ में शहीद बेटे की तस्वीर के माध्यम से
देश की दुर्दशा के बीच स्वतंत्रता दिवस की धूमधाम के विरोधाभास को बड़े ही
मर्मस्पर्शी रूप में प्रस्तुत करते हैं|
ज्योति जैन की ‘अपाहिज’ लघुकथा सोच को सार्थक दिशा देने वाली
एक सशक्त लघुकथा है| इसमें
पायल अपाहिज यश को अपना जीवन साथी चुनती है क्योंकि वह स्वयं फैसला लेने में सक्षम
है| अमन
पूर्णतया स्वस्थ होते हुए भी रीढ़विहीन है क्योंकि जिन्दगी के अहम् फैसले स्वयं
नहीं ले सकता| यश
को चुनकर पायल न केवल साहस का परिचय देती है वरन समाज के लिए भी एक अनुकरणीय
उदाहरण प्रस्तुत करती है|
सुकेश साहनी सदैव शिल्प और कथ्य के स्तर पर
पुरानी जमीन तोड़ते रहे हैं| इस संग्रह की लघुकथा ‘बिरादरी’ में उन्होंने बड़े सधे हुए अंदाज में
इस बात को रेखांकित किया है कि किस तरह मनुष्य का व्यवहार सामने वाले के स्टेटस को
देखकर पल-पल रंग बदलता है| भाषा के स्तर भी उन्होंने ध्यानाकर्षक प्रयोग
किए हैं यथा, ‘किसी
पुराने परिचित से सामना होने की आशंका मात्र से मेरे कान गर्म हो उठे’, ‘दांयीं आंख के नीचे बड़े-से मंसे के
कारण मुझे अपने बचपन के दोस्त सीताराम को
पहचानने में देर नहीं लगी’, ‘मैंने प्यार से उसकी तौंद को मुकियाते हुए कहा|’ साहनी की ‘आईना’ भी एक स्थापित उपन्यासकार की गरीबों के
प्रति सहानुभूति के खोखलेपन को आईना प्रतीक के माध्यम से एकदम मौलिक तरीके से
अभिव्यक्त करती है|
मुरलीधर वैष्णव की ‘पॉकेटमार’ तीर्थस्थलों पर पंडे-पुजारियं द्वारा
की जाने वाली लूट पर प्रकाश डालती है तो
अंजु दुआ जैमिनी की ‘कमाई
का गणित’ इन
पवित्र स्थलों पर दुकानदारों द्वारा भक्तों के साथ की जाने वाली चालाकियों का रोचक
बयान है|
संग्रह की कई लघुकथाओं में दरकते रिश्तों को
नयेपन के साथ विश्वसनीय तरीके से चित्रित किया गया है| ये लघुकथाएं हैं आशा शैली की ‘खोटा सिक्का’, कमल कपूर की ‘सर्वेंट क्वार्टर’ व ‘सहारे’, ज्योति जैन की ‘झप्पी’, कृष्णकुमार यादव की ‘बेटे की तमन्ना’, शकुन्तला किरण की ‘कोहरा’, सुरेश शर्मा की ‘भूल’ , अमरनाथ चौधरी अब्ज की ‘वसीयत’ आदि| इनमें से कमल कपूर की ‘सर्वेंट क्वार्टर’ को पाठक लम्बे समय तक भूल नहीं पायेंगे|
पोता पेंटिंग
में घर बनाता है, घर
में अलग-थलग सर्वेंट क्वार्टर| पिता खुश होता है कि बेटा सर्वेंट के लिए भी
अलग घर बना रहा है| इस
पर बेटा कहता है कि यह आपके लिए है, जब बूढ़े हो जाओगे तब इसमें रहोगे| दादाजी भी तो सर्वेंट क्वार्टर में ही
रहते हैं| यह
लघुकथा उस पुरानी कहानी का आधुनिक परिवेश
में सार्थक रूपान्तरण है जिसमें बेटा मिट्टी के बरतन को संभालकर रखता है जिसमें
दादाजी को बचा-खुचा खाना खिलाया जाता रहा है| सूर्यकान्त नागर की ‘कुकिंग क्लास’ तथा डॉ.सुधा जैन की ‘समाज सेवा’ सास-बहू के रिश्तों के तनाव को नये ढंग
से परिभाषित करती हैं| अर्थहीन
होते जा रहे रिश्तों को लेकर प्रभात दुबे की ‘गर्म हवा’ जबर्दस्त लघुकथा है| यह रचना वृद्ध लोगों की त्रासदी को
घनीभूत संवेदना के साथ प्रस्तुत करती है| यह जानकर कि शर्माजी को उनके बेटे-बहू ने
वृद्धाश्रम भेज दिया है, उनके साथ रोज घूमने वाले शेष दो वृद्ध बुरी तरह
सहम जाते हैं| उन्हें
अपना भविष्य दिखने लगता है| ट्रीटमेंट के लिहाज से यह लघुकथा बेहद सशक्त है|
यह सच है कि आज के समय में तमाम रिश्ते बेमानी
होते जा रहे हैं, वृद्धजन
लगातार अपनों ही के द्वारा अपमान झेलने को मजबूर हैं और स्वयं को असुरक्षित महसूस
करते हैं| ऐसे
में डॉ.दिनेश पाठक शशि की ‘साया’ एवं डॉ.योगेन्द्र नाथ शुक्ल की ‘टूटी घड़ी’ अंधेरे में प्रकाश की बारीक लकीर की
तरह नयी आशा जगाती है| ‘साया’
में अपनी बीमार
वृद्धा मां की मृत्यु पर बेटा स्वयं को अकेला और अनाथ-सा अनुभव करता है जबकि ‘टूटी घड़ी’ में पुत्र अपनी मां की निशानी स्वरूप
बची एक टूटी घड़ी के प्रति पिता के भावनात्मक लगाव को देखकर उसे कमरे से फेंकने की
बजाय पुनः वहीं रख देता है| ये दोनों लघुकथाएं इस बात के प्रति आश्वस्त करती
हैं कि अभी तक मानवीय संवेदनाएं पूरी तरह
मरी नहीं हैं कि अभी भी बहुत कुछ बचा हुआ है|
संग्रह में ऐसी लघुकथाएं भी हैं जिनमें
अभावग्रस्त आम आदमी की भूख और जिल्लत भरी जिंदगी को नये शिल्प और अछूते प्रतीकों
के माध्यम से वाणी दी गई है| पेट की ‘आग’(देवांशु पाल) ‘भूत’(डॉ.पूरन सिंह) पर भारी पड़ती है|
‘भूत’ लघुकथा का नायक भूख के आगे बेबस होकर
श्मशान घाट पर रखे भोजन को ग्रहण करने से भी भयभीत नहीं होता है| ‘पैण्ट की सिलाई’(डॉ.रामकुमार घोटड़), ‘साहब का कुत्ता’(आकांक्षा यादव), ‘पसीना और धुंआ’(अंजु दुआ जैमिनी), ‘सोने की चेन’(डॉ.रामनिवास मानव) तथा ‘पहली चिन्ता’(डॉ.कमल चोपड़ा) लघुकथाएं आम आदमी की
बेबसी को अपने-अपने ढंग से बयान करती है| डॉ.कमल चोपड़ा की ‘धर्मयुद्ध’ भी उल्लेखनीय है जो बेबाकी के साथ
सांप्रदायिक दंगों के राजनीतिक मुखौटे को बेनकाब करती है| डॉ.सतीशराज पुष्करणा की ‘अंधेरा’ भी इसी अंधेरे पक्ष के चलते चारों ओर
पसरे वैचारिक शून्य को भरने की सर्जनात्मक कोशिश है|
संग्रह में कुछ और लघुकथाएं हैं जो कथ्य या
शिल्प की ताजगी के चलते अलग से ध्यान आकर्षित करती हैं| ये हैं ‘विरेचन’(डॉ.पुरुषोत्तम दुबे), ‘गुस्सा’(गुरुनाम सिंह रीहल), ‘मामाजी’(नदीम अहमद नदीम), ‘यकीन’, ‘भरोसा’(निशा भोंसले), ‘घिसाई’(राजेन्द्र साहिल), ‘प्रश्न चिह्न’(प्रदीप शशांक), ‘फर्क’(इंदु गुप्ता), ‘मध्यस्थ’(मालती बसंत), ‘सुकन्या’(कुंवर प्रेमिल) और ‘नया क्षितिज’(साधना ठकुरेला)| ‘विरेचन’ में चुटीले संवादों के माध्यम से पर
निंदा सबसे बड़ा सुख कहावत को चरितार्थ किया गया है तो ‘गुस्सा’ में कायर का गुस्सा सदैव कमजोर पर
निकलता है को| ‘मामाजी’
और ‘नया क्षितिज’ में पुरुष मानसिकता पर सार्थक चोट की
गई है| साधना
ठकुरेला ने चिड़े का प्रतीक लेकर एक नयी बात कही है कि नर किसी भी प्रजाति का हो
नारी के प्रति उसका रवैया सदा समान रहता
है|
आज भ्रष्टाचार ने इस कदर शिष्टाचार का रूप
धारण कर लिया है कि ईमानदार आदमी की निष्ठा भी अविश्वसनीय लगती है(यकीन)| दूसरी ओर राजेन्द्र सिंह साहिल की ‘घिसाई’ ईमानदार आदमी के भोलेपन और तद्जन्य
बेबसी को बताती है| निशा
भोंसले की ‘भरोसा’
में पिता द्वारा
जवान बेटी को दिया गया यह जवाब मन को झिंझोड़कर रख देता है, ‘तुम पर (भरोसा) है पर इस शहर पर नहीं|’
यह अकेला वाक्य
लोगों की मानसिकता पर एक मुकम्मल बयान है| ‘प्रश्न चिह्न’ समय के साथ लोगों के बदलते मिजाज का अच्छा
जायजा लेती है| यहां
तलाक मिल जाने की खुशी(?) में युवती को मिठाई बांटते हुए दिखाया गया है|
संतोष सुपेकर की
‘उलझन’
तथा ‘एक और जानवर’ भी नयी जमीन पर खड़ी दिखायी देती है|
लेखक जब एक
व्यक्ति को घायल बैल पर गाड़ी चढ़ाते देखता है तो उसकी यह टिप्पणी बहुत कुछ कह
देती है, ‘सबने केवल एक जानवर देखा, पर मैंने दो जानवर देखे, एक चौपाया और एक दोपाया|’ वस्तुतः आज समाज में दोपाये जानवरों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है
जिनके प्रति एक साहित्यकार ही अपनी लेखनी द्वारा लोगों को सचेत कर सकता है|
आजकल जातिवाद भी हमारे समाज में नासूर की तरह
फैलता जा रहा है| अफसोस
कि राजनेता अपने नहित स्वार्थों के लिए इस सड़ांध को बचाए और बनाये रखना चाहते हैं|
हालांकि जातिवाद
के इस पहलू पर गौर करने वाली लघुकथाओं का अभाव है फिर भी इसके परंपरागत कारणों पर
प्रहार करने वाली कतिपय लघुकथाएं यहां संकलित की गई हैं| ये लघुकथाएं हैं त्रिलोक सिंह ठकुरेला
की ‘रीति-रिवाज’,
आनन्द कुमार की ‘विभेद’, ‘अपवित्र’ अशोक भाटिया की ‘बंद दरवाजा’ तथा डॉ.सुरेश उजाला की ‘जातिगत द्वेष|’
यद्यपि सभी लघुकथाओं में यथार्थ को विश्वसनीय
ढंग से प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है और भाषा के प्रति भी पर्याप्त सावचेती
बरती गई है फिर भी कहीं-कहीं असावधानीवश कुछ छिद्र रह गये हैं| उदाहरण के लिए जातिगत भेदभाव की
मनोवृत्ति पर प्रहार करने वाली लघुकथा ‘विभेद’ का आरंभ यों होता है, ‘बात आज से 20-25 साल पूर्व की है|’ यह पंक्ति अनावश्यक है और लघुकथा के
शिल्प को क्षति पहुंचाने वाली है| लगता है जैसे लेखक किसी सत्य घटना का बयान करने
जा रहा है| इसी
तरह ‘सोने
की चेन’ लघुकथा
जो आरंभ में बहुत सहजता के साथ आगे बढ़ रही होती है कि ‘मैं’ पात्र द्वारा चेन वाले से पूछा गया यह
प्रश्न पाठकों को चौंका देता है, ‘भाई, यदि तुम्हारी चेन इतनी बढ़िया है तो इसे अपनी
बेटी और बीवी को क्यों नहीं पहनाते?’ यह वाक्य यथार्थ को खंडित करने वाला है क्योंकि
लघुकथा में कहीं नहीं बताया गया है कि लेखक (मैं) ने चेन वाले की बीवी व बेटी को
पहले कहीं देखा है कि ये दोनों नकली चेन नहीं पहने हुए हैं| पाठक के मन में तो यह सवाल भी उत्पन्न
होता है कि लेखक को कैसे पता कि चेन वाले के एक बेटी भी है| जरा सी असावधानी लघुकथा की विश्वसनीयता
को सवालों के घेरे में खड़ा कर देती है| एक लघुकथा में वाक्य प्रयोग आता है, ‘उल्लास से छलकता, उसका मन सहसा बुझ गया|’ बुझता वह है जो जलता है| छलकने वाला तो रीतता है| अतः यहां छलकने के साथ बुझना का प्रयोग
अप्रासंगिक है| एक
और लघुकथा में वाक्य-खण्ड आता है, ‘एक पान के ठेले के सामने खड़े रिक्शेवाले की
वजह से’ जबकि
होना चाहिए ‘पान
के एक ठेले के सामने...|’
कुल मिलाकर
‘आधुनिक
हिन्दी लघुकथाएं’ संग्रह
की आधिकतर लघुकथाओं में नये शिल्प और संवेदना के साथ समकालीन जीवन मूल्यों तथा
समाज में व्याप्त विसंगतियों का गहराई के साथ जायजा लिया गया है| ये लघुकथाएं निस्सन्देह पाठकों को
रोजमर्रा की समस्याओं पर नये सिरे से सोचने के लिए बाध्य करेंगी|
संदर्भ-
आधुनिक हिन्दी लघुकथाएं, संपादक-त्रिलोक सिंह ठकुरेला, प्रकाशक-अरिहन्त प्रकाशन, जोधपुर |
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माधव नागदा
लालमादड़ी(नाथद्वारा)-313301
Mob.-09829588494